शब्द का अर्थ
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					धज 					 :
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					स्त्री० [सं० ध्वज=चिह्न, पताका] १. मोहित करनेवाली सुंदर चाल-ढाल या रंग-ढंग। २. कोई काम करने का सुन्दर ढंग या प्रकार। ३. बनाव-सिंगार। उदा०—वाह ! क्या धज है मेरे भोले की। शक्ल कोले की हैट सोले की।—अकबर। ४. ठसक। नखरा। ५. शोभा।				 | 
			
			
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					धजबड़ 					 :
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					स्त्री० [?] तलवार। (डि०)				 | 
			
			
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					धजा 					 :
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					स्त्री० [सं० ध्वज] १. ध्वजा। पताका। २. कपड़े की कतरन या धज्जी।				 | 
			
			
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					धजीला 					 :
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					स्त्री०=धव। वि० [हिं० धज+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० धजीली] १. आकर्षक। मनोहर अथवा सुन्दर धजवाला। २. बनाव-सिंगार किया हुआ।a				 | 
			
			
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					धज्जी 					 :
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					स्त्री० [सं० धटी] कपड़े, कागज, चादर, धातु पत्थर, लकड़ी आदि का वह पतला लंबा टुकड़ा या पट्टी जो उन्हें काटने, चीरने, फाड़ने आदि पर निकलती है। मुहा०—(किसी चीज की) धज्जियाँ उड़ाना=काट, चीर तोड़ या फाड़कर इतने छोटे-छोटे टुकड़े करना कि वे किसी काम के न रह जायँ। (किसी व्यक्ति की) धज्जियाँ उड़ाना=(क) बहुत अधिक मारना पीटना। (ख) दोषों या बुराइयों की इतने जोरों से चर्चा करना कि लोग उसका वास्तविक स्वरूप समझकर उसके प्रति उपेक्षा या घृणा का व्यवहार करने लगें। (किसी बात या सिद्धांत की) धज्जियाँ उड़ाना= गलत या दोषपूर्ण सिद्ध करते हुए उसका सारा महत्त्व नष्ट करना। निरर्थक सिद्ध करना। (किसी को) धज्जियाँ लगना=इतना अधिक दीन-हीन या दरिद्र हो जाना कि चीथड़े लपेट कर रहना पड़े। (किसी का) धज्जियाँ लेना=(किसी की) धज्जियाँ उड़ाना। (किसी व्यक्ति का) धज्जी हो जाना=बहुत ही कृश, क्षीण या दुर्बल हो जाना।				 | 
			
			
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